Uttar Pradesh: लोकसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक पार्टियों ने कमर कस ली है. अब किसी भी वक्त चुनाव अयोग चुनावी बिगुल फूंक सकते हैं. ऐसे में खबरे सामने आ रही है कि फतेहपुर सीकरी लोकसभा सीट से फिर से राज बब्बर चुनावी मैदान में उतर सकते हैं. कहा जा रहा है कि कांग्रेस-सपा गठबंधन से बदले चुनावी समीकरण देखकर राजबब्बर ने यहां से चुनाव लड़ने का फैसला किया है और 13 मार्च को वो आगरा भी आएंगे.
कांग्रेस हाईकमान का फैसला
दरअसल, कांग्रेस हाईकमान के मुताबिक, पार्टी के फैसले के चलते उन्होंने सीकरी से चुनाव लड़ने का मन बनाया है. इसी के चलते वो पहली बार गुजरात में राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा में भी शामिल हुए है. अब वो चुनावी माहौल परखने के लिए 13 मार्च को आगरा में आ रहे हैं.
बता दें कि, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंदन में फतेहपुर सीकरी पंजे के खाई में आई है. ऐसे में पार्टी के हाईकमान उन्हें सीकरी से उतरना चाहते है. राज बब्बर भी इस सीट को जीतने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते है और वो अपना पूरा दमखम भी दिखा रहे हैं. वो दो बार यहां से चुनाव लड़े हैं और दोनों बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा था. लेकिन हाईकमान के फैसले के चलते उन्हें यहां से चुनाव लड़ना पड़ रहा है.
राजबब्बर का रिकॉर्ड
अगर हम फतेहपुर सीकरी लोकसभा सीट की बात करें तो साल 2009 में इस सीट का गठन हुआ था. राज बब्बर को बीएसपी की सीमा उपाध्याय ने हराया था. 2019 में वो फिर से कांग्रेस की तरफ से मैदान पर उतरे थे. लेकिन इस बार उन्हें बीजेपी के राजकुमार चाहर ने बड़ी हार दी थी.
16 फरवरी 1978, वो दिन जब एक फिल्म रिलीज हुई तो सियासत में तहलका मच गया. दरअसल ये वही फिल्म थी जो 1975 में रिलीज होनी थी, लेकिन किसी कारणों से फिल्म रिलीज नहीं हुई थी. कहा जाता है कि उस वक्त यानी इमरजेंसी के दौर में हर फिल्म को पहले सरकार देखती थी और बाद में रिलीज करती थी. इसे देखने के बाद सरकार को लगा कि ये फिल्म संजय गांधी की इमेज का मखौल उड़ा देगी और सरकार की नीतियों को बदनाम करेगी. जिसके चलते सेंसर बोर्ड ने 51 आपत्तियां लगाते हुए जवाब मांगा. निर्देशक ने तर्क तो दिए लेकिन वो नकार दिए गए. जिसके बाद इसे रिलीज नहीं किया गया. यहां तक की इसके प्रिंट भी जब्त कर लिए गए थे.
राजनीति ने राज बब्बर की जिंदगी को बहुत प्रभावित किया
रिपोर्ट्स में दावा किया जाता है कि 1977 में जनता पार्टी की सरकार आने पर संजय गांधी और वीसी शुक्ला पर आरोप लगा कि उन्होंने फिल्म के प्रिंट मुंबई से मंगवाकर गुड़गांव स्थित मारुति कारखाने में जलवा दिए. संजय गांधी को फिल्म के प्रिंट नष्ट करने का दोषी माना गया. मुकदमा दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में चला. संजय पर गवाहों पर दबाव बनाने का भी आरोप लगा. जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने उनकी जमानत रद्द करते हुए एक महीने के लिए तिहाड़ जेल भेज दिया. इस फिल्म में राज बब्बर मुख्य भूमिका में थे. फिल्म का निर्देशन अमृत नाहटा ने किया था. इमरजेंसी हटने के बाद डायरेक्टर ने 1977 में दोबारा फिल्म बनाई.
हालांकि दूसरी बार बनी फिल्म में राज ने काम नहीं किया. फिल्म में राज किरण, सुरेखा सीकरी और शबाना आजमी मुख्य भूमिकाओं में थे. लेकिन जिस पहली फिल्म में अभिनेता राज बब्बर ने काम किया था. वो आज उसी कांग्रेस से गुड़गांव से चुनावी मैदान में है. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सुनील दत्त और शत्रुघ्न सिन्हा की तरह वो एक ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने जितनी गंभीरता से पर्दे पर रोल निभाया, उतनी ही सजगता से राजनीतिक पारी खेली. राजनीति ने राज बब्बर की जिंदगी को बहुत प्रभावित किया, कहा जाता है कि राज बब्बर समाजवादी विचारधारा के रहे है. उनकी इस विचारधारा के मुरीद बाला साहेब ठाकरे से लेकर वीपी सिंह, मुलायम सिंह यादव और दिग्विजय सिंह भी रहे. एक ओर सियासत में ये दिग्गज उनके मुरीद थे तो वहीं एक्टिंग की दुनिया में उनका उस दौर में कोई जोड़ नहीं था. उनकी एक्टिंग के मुरीद बीआर चोपड़ा, शक्ति सामंत और लेख टंडन जैसे फिल्ममेकर थे. उनकी एक ऐसी फिल्म आई थी जिसने सबको चौंकाकर रख दिया वो थी- बी.आर.चोपड़ा के निर्देशन में बनी ‘इंसाफ का तराजू’.
बब्बर कई बार फिल्मी दुनिया की अंदरुनी राजनीति का भी हुए शिकार
इस फिल्म में वो ऐसे खलनायक बने और ऐसी एक्टिंग की, जिसके बाद उनकी तुलना इंडस्ट्री के अगले अमिताभ बच्चन के तौर पर होने लगी. हालांकि ये तुलना उनके करियर के लिए घातक साबित हुई. इसी के चलते कई बार फिल्मी दुनिया की अंदरुनी राजनीति के शिकार भी हुए. कई फिल्में छूटीं तो कई फिल्में उनसे छीनी भी गईं. हालांकि राज बब्बर इन राजनीतियों से बेपरवाह करते गए और दुल्हा बिकता है, निकाह, आज की आवाज, मजदूर, अर्पण जैसी तमाम फिल्मों में खुद को साबित किया. ये वो दौर था जब अमिताभ बच्चन के सुपरस्टारडम का सिक्का चलता था और वो खुद भी राजनीति में आ चुके थे. पूरा मामला हाई प्रोफाइल था. उसी दौर में उनका संपर्क पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह और फिर अभिनेता-नेता सुनील दत्त से हो चुका था. 1988 के उपचुनाव में राज बब्बर ने वीपी सिंह के लिए इलाहाबाद में प्रचार अभियान में हिस्सा लिया था. तब की राजनीति बोफोर्स तोप सौदे से गूंज रही थी. राज बब्बर वीपी सिंह के मोर्चे में शामिल हो गए. वो जनता दल का हिस्सा थे.
मुलायम सिंह ने राज बब्बर को संसदीय सियासत में एंट्री दिलाई
90 के दशक में जब अयोध्या विवाद को लेकर राजनीति तेज हुई, 1992 विध्वंस के बाद मुंबई में दंगे हुए तब राज बब्बर ने सुनील दत्त के साथ सांप्रदायिक सौहार्द के लिए जनसेवा की. इन दोनों की तत्परता और जोश देख खुद समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने इन पर नजरें गढ़ाई. मुलायम सिंह यादव ने उनको 1996 में पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ पहली बार लखनऊ से टिकट दिया. इस चुनाव में भले ही हारे परंतु अगले दो चुनावों में जीतकर संसद पहुंचे. ये वो वक्त था जब समाजवादी पार्टी में मुलायम-अमर की जोड़ी की तूती बोलती थी. कुछ सालों के बाद राज बब्बर उसमें फिट नहीं बैठे. पहले अमर सिंह और फिर मुलायम सिंह से उनकी तल्खी बढ़ी जिसके बाद उन्होंने समाजवादी पार्टी से खुद को अलग कर लिया.
हालांकि राज बब्बर ने उत्तर प्रदेश की सियासत में अपना कद बना लिया था. फिल्मों के साथ-साथ राजनीति चल रही थी. सपा से अलग होने के बाद 2009 में कांग्रेस के तब के यूपी प्रभारी दिग्विजय सिंह ने उनको पार्टी में शामिल करवाया. राजनीति का गजब खेल देखिए कि जिस मुलायम सिंह ने राज बब्बर को संसदीय सियासत में एंट्री दिलाई, उन्हीं की बहू डिंपल यादव को फिरोजाबाद से राज बब्बर ने हरा दिया. हालांकि 2014 के बाद मोदी लहर में वो लोकसभा का चुनाव नहीं जीत सके लेकिन पार्टी ने उनकी उपयोगिता को देखते हुए राज्यसभा के जरिए संसद में भेजा, जहां वो एक जननायक जैसी आवाज बुलंद करते रहें. राज बब्बर 2024 में गुरुग्राम से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं. उन्हें राजनीति में इंसाफ का इंतजार है तो जननायक बनने की ख्वाहिश भी बरकरार है. ये कब पूरी होती है ये देखने वाली बात होगी
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