देश की 18वीं लोकसभा का पहला सत्र 24 जून को शुरू हुआ था. जिसमें सबसे पहले PM मोदी ने 18वीं लोकसभा के सदस्य के रूप में शपथ ली. जिसके बाद अन्य सांसदों का शपथ ग्रहण दो दिनों तक चला. वहीं अब विपक्ष ने अपना नेता प्रतिपक्ष चुन लिया है. जिसको लेकर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के घर मंगलवार को इंडिया ब्लॉक की बैठक हुई. इस बैठक में राहुल गांधी के सदन में नेता विपक्ष बनाने को लेकर चर्चा हुई. जिसके बाद इंडिया गठबंधन की मीटिंग में राहुल गांधी के बतौर विपक्ष का नेता बनने पर औपचारिक मुहर लग गई है. पिछले दिनों कांग्रेस की सीडब्ल्यूसी मीटिंग में एक सुर में राहुल गांधी से नेता विपक्ष बनने का आग्रह किया गया था. हालांकि उन्होंने सोचने के लिए थोड़ा वक्त मांगा था. बताया जाता है कि शुरू में राहुल गांधी इसके लिए बहुत ज्यादा इच्छुक नहीं थे. लेकिन पार्टी की ओर से लगातार उठ रही मांग के बाद उन्होंने इस पर विचार किया. बता दें ये पद मोदी सरकार के पिछले दो कार्यकालों से खाली है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर नेता प्रतिपक्ष पद को लेकर क्या नियम-कानून है और क्यों राहुल गांधी इस जिम्मेदारी को अभी नहीं संभालना चाहते थे. इस रिपोर्ट में समझते है.

लोकतंत्र में संतुलन बनाए रखने को विपक्ष के नेता का रोल महत्वपूर्ण
ऐसा कहा जाता है कि लोकतंत्र में संतुलन बनाए रखने के लिए विपक्ष के नेता का रोल बहुत महत्वपूर्ण होता है. नेता प्रतिपक्ष को केंद्रीय मंत्री के बराबर सैलरी, भत्ता और बाकी सुविधाएं दी जाती है. नेता प्रतिपक्ष की मासिक सैलरी 3,30,000 रुपये होती है. साथ ही कैबिनेट मंत्री स्तर के आवास की सुविधा ड्राइवर सहित कार जैसी सुविधाएं मिलती है. यहां तक की ED, CBI जैसी केंद्रीय एजेंसियों के प्रमुखों की नियुक्ति के प्रोसेस में नेता प्रतिपक्ष शामिल रहता है. चुनाव आयुक्त, मुख्य चुनाव आयुक्त, सूचना आयुक्त और लोकपाल की नियुक्त के लिए भी नेता प्रतिपक्ष की राय ली जाती है, यहां एक सवाल आता है कि क्या ये कोई संवैधानिक पद है अगर है तो क्या नियम है.

10 साल के लंबे इंतजार के बाद कांग्रेस को मिला पद
दरअसल लोकसभा में 10 साल के लंबे इंतजार के बाद कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का पद अधिकृत रूप से मिला. जिसकी बड़ी वजह भी है, क्योंकि मोदी सरकार के पहले और दूसरे कार्यकाल में कांग्रेस के लोकसभा सांसदों की संख्या 10 फीसदी से कम होने के कारण ये पद खाली था. इस बार कांग्रेस के 99 सांसद जीतकर आए हैं, जो लोकसभा की कुल संख्या का 18 फीसदी हैं. जिसके चलते कांग्रेस का नेता प्रतिपक्ष बनेगा, मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो संसद में विपक्ष का नेता एक संवैधानिक पद होता है लेकिन नेता प्रतिपक्ष का उल्लेख संविधान में नहीं बल्कि सदन के नियमों में है.संविधान के आर्टिकल 118 में स्पष्ट किया गया है कि संसद का प्रत्येक सदन अपने कामकाज के संचालन के लिए नियम बना सकता है. निचले सदन के नियम ‘Rules of Procedure and Conduct of Business in Lok Sabha’ में शामिल हैं. इसमें स्पीकर के चुनाव, बिल पेश करने की प्रक्रिया, सवाल पूछने के ढंग, आदि के बारे में बताया गया है. लोकसभा का स्पीकर समय-समय पर इनमें बदलाव करता रहता है.

1969 के कांग्रेस विभाजन के बाद अस्तित्व में आया था पद
देश के पहले नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस (ओ) यानी पुरानी कांग्रेस के नाम से जो जानी जाती थी उसी के नेता राम सुभाग सिंह बने थे. ये पद 1969 के कांग्रेस विभाजन के बाद अस्तित्व में आया था. विपक्ष के नेता को चुनने का नियम सबसे पहले तत्कालीन अध्यक्ष जी. वी. मावलंकर लेकर आए थे. उसी नियम से आज भी इस पद पर नियुक्ति होती है. उस समय कांग्रेस (0) के राम सुभग सिंह ने इस पद के लिए दावा किया था. संसद के 1977 के एक अधिनियम द्वारा नेता प्रतिपक्ष पद को वैधानिक दर्जा दिया गया. जिसमें कहा गया कि एक विपक्षी दल को अपने नेता यानी नेता प्रतिपक्ष पद के लिए विशेषाधिकार और वेतन का दावा करने के लिए सदन के कम से कम 10वें हिस्से पर अधिकार होना चाहिए. यानी नियम कहता है कि विपक्ष का नेता बनने के लिए सदस्य को ऐसी पार्टी का हिस्सा जरूरी है, जिसके पास कुल लोकसभा सीटों में से 10 प्रतिशत हासिल हो. चूंकि 17वीं लोकसभा में किसी भी विपक्षी पार्टी के पास 10 फीसदी सीटें नहीं थी, इसलिए सदन में कोई भी विपक्ष का नेता नहीं बन सका. मौजूदा वक्त में कांग्रेस के पास 10 फीसदी से ज्यादा सीटें है इसलिए नेता प्रतिपक्ष बन सकता है.

नेता प्रतिपक्ष को वैधानिक दर्जा मिलने में कई साल लग गए
रिपोर्ट्स की मानें तो नेता प्रतिपक्ष को चुनने का नियम तो 1956 में बन गया, लेकिन इस पद को वैधानिक दर्जा मिलने में कई साल लग गए. पहली बार नेता प्रतिपक्ष को ‘Salary and Allowances of Leaders of Opposition in Parliament Act, 1977’ में परिभाषित किया गया था. इस अधिनियम में, संसद के दोनों सदन के विपक्ष के नेता को कुछ इस तरह परिभाषित किया- “विपक्ष के नेता” का अर्थ उस सदन में सरकार के विरोध में सबसे अधिक संख्या बल वाली पार्टी का नेता से है. ऐसे सदस्य को सदन के अध्यक्ष द्वारा मान्यता भी प्राप्त होनी चाहिए. यहां एक सवाल और उठता है कि अगर कोई भी विपक्षी पार्टी 10 फीसदी सीट न ला पाए, तो क्या होगा? दरअसल उस केस में CVC Act 2003 और RTI Act 2005 में ऐसी स्थिति में बताया गया है, जब किसी विपक्षी पार्टी के पास संसद की 10 फीसदी सीट नहीं है. इन दोनों एक्ट के मुताबिक, अगर स्पीकर किसी को भी नेता प्रतिपक्ष की मान्यता नहीं देता है, तो सेलेक्शन कमेटी में सबसे ज्यादा सीट वाली विपक्ष पार्टी के लीडर को नेता प्रतिपक्ष की जगह शामिल कर लिया जाएगा.

27 जून को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का अभिभाषण
आपको बता दें 18वीं लोकसभा का पहला सत्र 3 जुलाई तक चलेगा. इस विशेष सत्र के दौरान लोकसभा स्पीकर का चुनाव किया जाएगा. लोकसभा के स्पीकर पद को लेकर सहमति बनाने की जिम्मेदारी राजनाथ सिंह को सौंपी गई है. जिसको लेकर मंथन हो चुका है हालांकि कांग्रेस का कहना है कि अगर उन्हें डिप्टी स्पीकर की पोस्ट नहीं दी गई तो विपक्ष स्पीकर के पद के लिए अपना प्रत्याशी खड़ा कर सकता है. अगर ऐसा हुआ तो ये आजाद भारत में पहली बार होगा. दल बदल कानून के बाद से स्पीकर की भूमिका कई मायने में अहम हो जाती है. नए लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव कल यानी 26 जून को होगा. 27 जून को लोकसभा और राज्यसभा के संयुक्त सत्र में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का अभिभाषण होगा. वो अगले पांच साल के लिए नई सरकार के रोडमैप की रूपरेखा पेश करेंगी. इसके बाद दोनों सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा होगी और संभवतः 2 जुलाई को राज्यसभा और 3 जुलाई को लोकसभा में प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई चर्चा का जवाब देंगे. इसी दौरान संसद को लीडर ऑफ अपोजिशन भी मिलेगा. ये पद पिछले 10 साल से खाली पड़ा है. आखिरी बार सुषमा स्वराज 2009 से 2014 तक लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष थीं. सुषमा स्वाराज के बाद अब ये पद राहुल गांधी को मिल सकता है.